इमारतें हिंदी कविता व्यंग्य
इन बड़ी इमारतों में जो लोगे रहते हैं
बहुत कुछ देख कर भी खामोश रहते हैं
अगले घर में क्या हुआ क्या नहीं
उसकी फिक्र इनको सिर्फ
gossiping तक है
वरना ये अपने काम से काम रखते हैं
किसी ने पुकारा भी हो तो
सिर्फ बंद दरवाज़ों के झरोखे
से तमाशा देखते हैं
और खुद को महफूस समझ
उस आवाज़ को ignore करते हैं
न जाने कितनी आवाजें दब गई होगी
उनकी इस नज़र अंदाजी में
और कुछ अनसुनी कर दी होगी
इन इमारतों में रहने वालो ने
उन्होंने ये कभी सोचा ही नहीं
कि क्या होगा किसी रोज़ जब
उनकी आवाज़ न पड़े किसी
के कानो में
कोई अपना अनसुना कर दिया हो
इन इमारतों में रहने वालो ने
क्या तब भी तुम सिर्फ इन
बंद दरवाजों से झाकोगे
ये वो आवाज़ सुन उसकी
मदत को भागोगे
चलो आज से अपनी लाइफ स्टाइल
में सुधार लाते हैं
एक बेहतर इंसान बने इसका
जिम्मा उठाते हैं
ताकि सब कह सके
इन बड़ी इमारतों में वो लोग रहते हैं
जो अपने काम से काम रखते हैं
पर किसी आवाज़ को सुन उसकी
मदत को इन्ही बंद दरवाज़ों से
निकलते हैं ……
अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”
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